रायबरेली। ग्रीस के एथेन्स नगर में जन्मे महान कवि सोलोन (630 ईसा पूर्व) केवल एक कवि ही नहीं, बल्कि दार्शनिक और समाज सुधारक भी थे। उनकी रचनाएँ देशभक्ति, न्याय और संवैधानिक सुधारों पर आधारित थीं।
उनकी एक प्रसिद्ध कविता की पंक्तियाँ थीं—
“कुछ दुष्ट लोग धनी होते हैं, कुछ अच्छे लोग निर्धन होते हैं,
हम उनके भंडार के बदले अपना पुण्य नहीं बदलेंगे,
पुण्य ऐसी वस्तु है जिसे कोई छीन नहीं सकता,
परन्तु धन तो दिन भर मालिक बदलता रहता है…”
प्राचीन काल में एथेन्स नगर के लोग मेगारावालों से वैरभाव रखते थे। सलामिस द्वीप पर कब्जे को लेकर दोनों के बीच कई युद्ध हुए, लेकिन हर बार एथेन्स को हार का सामना करना पड़ा। इससे व्यथित होकर सोलोन ने एक राष्ट्रवादी कविता लिखी—
“आओ हम सलामिस चलें और उस द्वीप के लिए लड़ें जिसे हम चाहते हैं,और अपनी कड़वी शर्म से दूर भागें!”
सोलोन ने एक ऊँची जगह पर चढ़कर यह कविता एथेन्सवासियों को सुनाई। कविता का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि नागरिकों में जोश भर गया और उन्होंने तुरंत युद्ध की घोषणा कर दी। इस बार एथेन्स की सेना ने विजय प्राप्त की और सोलोन स्वयं इस युद्ध के सेनापति भी बने।
सोलोन ग्रीस के सात संतों में से एक माने जाते हैं। उनके सम्मान में फूलों की एक प्रजाति “सोलोनिया” का नामकरण उनके नाम पर किया गया। उनकी मृत्यु 70 वर्ष की आयु में साइप्रस में हुई, और उनकी राख को सलामिस द्वीप के चारों ओर बिखेरा गया, जहाँ उनका जन्म हुआ था।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका के जुलाई 1907 अंक में ‘कवि और कविता’ नामक निबंध में सोलोन की इस कविता का उल्लेख किया और यह बताया कि असली कविता वही होती है जो जनमानस पर प्रभाव डाले। उन्होंने लिखा था—
“जिस पद्य के पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता, वह कविता नहीं, वह नपी-तुली शब्द स्थापना मात्र है।”
उनका मानना था कि—
गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है।
तुकबंदी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं हैं।
कविता के लिए विचारों की स्वतंत्रता आवश्यक है, तुकबंदी और काफ़िये कभी-कभी बाधा भी बन सकते हैं।
यद्यपि आचार्य द्विवेदी ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत 1889 में बृजभाषा में कविता लिखने से की थी, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि कविता करना एक कठिन कार्य है। उन्होंने समय-समय पर ‘कविता’, ‘कवि कर्तव्य’, ‘कविता का भविष्य’ जैसे लेखों के माध्यम से कवियों का मार्गदर्शन भी किया।
सोलोन की कविता ने न केवल एक पराजित सेना को जीत की ओर अग्रसर किया, बल्कि यह भी साबित किया कि शब्दों में वह शक्ति होती है, जो तलवार से भी अधिक प्रभावी हो सकती है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा स्थापित कविता के मानक आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके समय में थे।
(गौरव अवस्थी, 9415034340)
