पत्रकारिता या “ड्यूटीबाज़ी”? गोण्डा में कलम पर भारी चाय की चुस्कियां और बंगले की दहलीज़ — पत्रकारिता की गिरती साख पर बड़ा सवाल

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गोंडा, 21 जून 2025

एक दौर था जब पत्रकार को समाज का चौथा स्तंभ कहा जाता था — जहां उसकी कलम न्याय की अंतिम उम्मीद मानी जाती थी, वहीं आज की पत्रकारिता खुद ग़ुलामी और दबावों की बेड़ियों में जकड़ती नज़र आ रही है। गोंडा जिले से सामने आई एक कड़वी लेकिन ज़रूरी सच्चाई आज पूरे पत्रकारिता जगत को आत्ममंथन के लिए मजबूर कर रही है।

अब पत्रकार, ख़बर की तह तक जाने के बजाय किसी अधिकारी की टेबल पर चाय की चुस्की लेते दिखते हैं, मानो पत्रकारिता का मूल केंद्र ही सरकारी दफ्तर की फाइलों के नीचे दब गया हो। कुछ तथाकथित “वेतनभोगी पत्रकार” तो नेता-मंत्रियों के बंगलों की सुबह की ड्यूटी बजाते देखे जा सकते हैं — जहां खबरें नहीं, हाज़िरी लगती है।

पत्रकार बन गए ‘बाइट कलेक्टर’

जहां पत्रकार का काम होता है किसी भी खबर के तथ्य, दस्तावेज़, पीड़ित की आवाज़, और उसके पीछे की हकीकत को समझकर संवेदनशील रिपोर्टिंग करना, वहीं अब पत्रकारिता का मतलब रह गया है — वर्जन और बाइट इकट्ठा करना। ऐसे वर्जन, जो पहले से तैयार रटे-रटाए सरकारी उत्तरों से भरे होते हैं।

नेता और अधिकारी एक जैसे उत्तर देते हैं — “हम जांच करवा रहे हैं”, “कड़ी कार्रवाई होगी”, “सरकार प्रतिबद्ध है” — और ये बयान पाना ही मानो पत्रकारिता का अंतिम लक्ष्य बन चुका है। जबकि असली पत्रकारिता का सार है — ऐसी रिपोर्टिंग जो सत्ता को झकझोर दे, गरीब और पीड़ित की आवाज़ को ऊंचा करे।

चाय, चापलूसी और चुप्पी की त्रासदी

आज की पत्रकारिता कई जगहों पर ‘चाय’, ‘चापलूसी’ और ‘चुप्पी’ का त्रिकोण बन चुकी है। ऐसे में सवाल उठता है — क्या वाकई अब पत्रकार स्वतंत्र है? या फिर उसने खुद ही अपने पेशे को बंधक बना लिया है सत्ता और सुविधा के सामने?

कुछ पत्रकारों की ये कार्यशैली उन जमीनी पत्रकारों के लिए भी मुश्किलें पैदा कर रही है, जो जोखिम लेकर, बिना सुरक्षा के सच को सामने लाने का प्रयास करते हैं। जब सत्ता से सवाल किए जाते हैं, तो जवाब में प्रेस को गोदी मीडिया, दलाल, या ब्लैकमेलर जैसे तमगों से नवाज़ा जाता है।

सच लिखना अब खतरनाक है।

गोंडा सहित कई जिलों में अब हालात यह हो गए हैं कि यदि कोई पत्रकार अधिकारी या नेता के भ्रष्टाचार को उजागर कर देता है, तो तुरंत झूठे मुकदमों का सामना करना पड़ता है। कभी किसी अज्ञात व्यक्ति से प्रार्थनापत्र दिलवाकर, तो कभी किसी महिला की आड़ लेकर, पत्रकार को फंसाने की कोशिश की जाती है।

यह स्थिति पत्रकारिता को एक ऐसा बंधन बना रही है जिसमें न तो पत्रकार स्वतंत्र है, न ही सुरक्षित। परिवार पालना, ज़िम्मेदारियां निभाना और साथ ही ईमानदारी से पत्रकारिता करना — आज यह संघर्ष किसी युद्ध से कम नहीं है।

पत्रकारिता को फिर से ज़िंदा करना होगा।

कलम को फिर से आवाज़ देनी होगी — जो चाय की चुस्कियों से नहीं, जमीनी सच्चाई और ईमानदार लेखनी से निकले। पत्रकारों को तय करना होगा कि वे केवल वर्जन लेकर ‘खबर’ बनाएंगे या समाज को दिशा देने वाली रिपोर्टिंग करेंगे। सत्ता और सिस्टम से सवाल पूछना अगर जुर्म है — तो वह जुर्म बार-बार करना ही असली पत्रकारिता है।

अब ज़रूरत है — चुस्की छोड़, चुनौती उठाने की। बंगले छोड़, बस्ती में उतरने की। और सबसे बढ़कर, दबाव नहीं, दायित्व निभाने की।

 

✍️ विशेष रिपोर्ट – हिंद लेखनी न्यूज़, गोंडा

 

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